@ बालोद
आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी से देवशयन प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है इसे चातुर्मास कहते हैं। इन चार महिनों तक देवता शयन करते हैं इसलिये इस अवधि में गृहप्रवेश, विवाह, देवी - देवताओं की प्राण - प्रतिष्ठा, यज्ञ आदि शुभ कार्य बंद रहते हैं। देवउठनी एकादशी को देवता जब जागृत होते हैं तब सभी शुभ कार्य फिर से प्रारंभ हो जाते हैं।
पाटेश्वरधाम के आनलाईन सतसंग में पुरूषोत्तम अग्रवाल की जिज्ञासा का समाधान करते हुये बाबा रामबालकदास जी ने कहा कि हरिशयन को योगनिद्रा भी कहते हैं। सूर्य, चंद्रमा, वायु, अग्नि यह सभी हरि के ही रूप हैं। इन चार मासों में बादल और वर्षा के कारण सूर्य - चंद्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही रूप है। वायु की गति मंद पड़ जाती है जो वायु के शयन का द्योतक है। पित्त स्वरूप अग्नि की गति भी शिथिल पड़ जाती है जो शरीरगत शक्ति की क्षीणता की पहचान है। श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार बलि के वचन की रक्षा के लिये भगवान हरि पाताल लोक में निवास करते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार चार महिने भगवान विष्णु एक रूप में क्षीरसागर में शेष सैय्या पर योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं और उनका दूसरा रूप सुतल लोक में रहता है। बाबा जी ने कहा यह चार महिने आत्मशुद्धि हेतु पूजन, यजन एवं शास्त्र की शरण में जाने का उत्तम अवसर है। इस संबंध में विशिष्टाद्वैतवादियों का मानना है कि जीव, माया और ब्रह्म के एकीकरण से ही श्रृष्टि का अस्तित्व है। श्री विष्णु योगनिद्रा में रहकर माया को समेटते हैं ताकि जीव ब्रह्म को प्राप्त करने में निर्बाध रूप से अग्रसर हो सके। यह श्री हरि की आध्यात्मिक निद्रा है। अचेतन में चैतन्यता बनाये रखना ही इसका संदेश है। देवशयनी एकादशी आत्मचिंतन, शोधन, इंद्रिय निग्रह से एकाग्रता की ओर बढ़ते हुये आत्मसाक्षात्कार की अवस्था का ही दूसरा नाम है।
इस तरह आज का सत्संग सम्पन्न हुआ
जय सियाराम।