शहर में दोपहर बाद से ही रावत दलों का आगमन होने लगा। शाम होते-होते दल के सदस्य रावत नाच महोत्सव आयोजन स्थल लाल बहादुर शास्त्री स्कूल परिसर में जुटने लगे। कोरोना महामारी के नियमों का पालन करते हुए लोग मास्क लगाकर महोत्सव के शुरू होने का इंतजार करने लगे।
महोत्सव में प्रवेश के लिए चार गेट बने थे। शाम को अतिथियों के आगमन के साथ ही परसदा के रावत दल ने महोत्सव में प्रवेश किया। अतिथियों का स्वागत हुआ और सीएम भूपेश बघेल के साथ सभी अतिथियों ने दीप प्रज्जवलित कर कार्यक्रम की शुरुआत की। मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री भूपेश व अतिथियों को रावत नाच की पोषाक पहनाई गई। फिर मंच से उतरकर सभी अतिथि रावत नाच के लिए बनाए गए घेरे में पहुंचे। रावत नर्तक दल के सदस्यों के साथ मुख्यमंत्री ने दोहा पढ़े और सभी अतिथि उनके साथ में थिरकने लगे। ग्रामीण इलाकों से पहुंचे नर्तक दलों ने कबीर, तुलसी, सूरदार के परंपरागत दोहों के साथ कोविड-19 से बचने के लिए दोहे पढ़े। उनका संदेश था कि लोग मास्क, सेनेटाइजर का उपयोग करें।
सीएम ने कहा- बरसों बरस चले महोत्सव, इसकी योजना बनाएंगे
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा कि रावत नाच, काक्षन सोहाई तो पूरे प्रदेश में होता है लेकिन बिलासपुर में महोत्सव की तरह मनाया जाता है। ये महोत्सव बिलासपुर की पहचान है। राज्य सरकार ने गौठान और चरवाहों की व्यवस्था बनाई है। चारा, पानी, चरवाहे की व्यवस्था के साथ गोबर खरीदने की शुरुआत भी छत्तीसगढ़ में की गई। यह देश का पहला राज्य है, जहां गोबर खरीदा जा रहा है। गोठानों में उपलब्ध गोबर को बेचकर आज चरवाहे हजारों रुपए कमा रहे है। समिति ने महोत्सव में भविष्य को लेकर चिंता जताई है। यह महोत्सव सतत रूप से चलता रहे इसकी व्यवस्था भी की जाएगी। आयोजकों के साथ बैठकर इसकी योजना बनाएंगे। महोत्सव में भाग लेने वाले प्रत्येक नर्तक दल को 5-5 हजार देने और पशु औषाधालय निर्माण की घोषणा की।
रंगीन टोपियां थी आकर्षक
गड़वा-बाजा और मुरली की तान पर शनिवार की शाम से देर रात तक यदुवंशी जमकर थिरकते रहे। विभिन्न दलों के कलाकारों के रंग-बिरंगे कपड़ों पर कौड़ियां जड़ी जैकेट और अलग-अलग तरह की चमकदार रंगीन टोपियां आकर्षक लग रहीं थी।
तुलसी, कबीर के दोहे गूंजे
स्वागत द्वार से दल एक-एक कर भीतर प्रवेश करते गए और तुलसी, कबीर, सूरदास और मीरा के दोहों के साथ ही लोकगीतों पर कला का प्रदर्शन करते रहे। नर्तक दलों के कलाकारों ने सामाजिक संदेश और कृष्ण भक्ति के दोहों के साथ गड़वाबाजा में नाच का प्रदर्शन किया।
एक वक्त था जब रावत नाच में होते थे झगड़े आज ये यादव समाज का सबसे बड़ा उत्सव
रावत नाच का इतिहास प्राचीन है। युगों-युगों से चली आ रही परंपरा को छत्तीसगढ़ आज भी निभाता आ रहा। पहले राउत गांवों में लोगों के घर-घर जाकर देवारी करते थे। किसान उन्हें आशीष के बदले में अनाज देते थे। मातर में समाज के लोगों के घर जाकर गोवंश को गोठान में ले जाया जाता था। पूरी रात सभी जागते और नाचते-गाते थे। फिर मड़ई मेला की शुरुआत हुई। लालबहादुर स्कूल परिसर में जो आज रावत नाच महोत्सव हो रहा है वह मड़ई मेला ही है। पहले शनिचरी, बृहस्पति और बुधवारी में राउतों का बाजार भरता था। तब समाज के लोगों में झगड़े होते थे, मारपीट के बाद थाने तक मामला जाते थे। विवाद से बचने व इस लोक संस्कृति को कायम रखने और बढ़ावा देने के लिए तत्कालीन मंत्री स्व. डॉ. बीआर यादव ने लाल बहादुर शास्त्री स्कूल में रावत नाच महोत्सव की शुरुआत की। यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है। 1978 में महोत्सव का रूप दिया। सिटी कोतवाली थाने में 3 शील्ड रखकर रावत नाच करने वाले दलों के बीच प्रतियोगिता की शुरुआत की गई।
प्रथम पुरस्कार 101, द्वितीय 51 और तृतीय 31 रुपए रखा गया। सन 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजे राष्ट्रीय शोक में रावत नाच महोत्सव स्थगित रहा। सन् 1985 से यह महोत्सव लाल बहादुर शास्त्री मैदान में शुरू हुआ। अब 40 साल पहले यादवों के बीच होने वाला विवाद खत्म हो गया है। महोत्सव शुरू होने के बाद से अब तक एक भी केस थाने में दर्ज नहीं हुआ। जिस उद्देश्य से महोत्सव शुरू हुआ आज वह पूरा कर लिया गया है। रावत नाच भी देश का प्रसिद्ध महोत्सव बन गया है।