श्रद्धा संबल रहित तन नहीं संतन कर साथ... जानिए पितृपक्ष में पूजन कि सही विधि...

श्रद्धा संबल रहित तन नहीं संतन कर साथ... जानिए पितृपक्ष में पूजन कि सही विधि...



|ब्यूरो•बालोद|✍️पीयूष साहू|]
प्रतिदिन की भांति आज भी  सुंदर  ऑनलाइन सत्संग का आयोजन पाटेश्वर धाम के संत राम बालक दास जी द्वारा सीता रसोई वाट्सएप संचालन ग्रुप में प्रातः 10:00 से 11:00 बजे और दोपहर 1:00 से 2:00 बजे आयोजित किया गया, ऑनलाइन सत्संग परिचर्चा एक ऐसा संत समागम है, जिसमें सभी अपने धार्मिक विषयक जिज्ञासा ओं को संत श्री के समक्ष प्रस्तुत करते हैं और उनका समाधान प्राप्त करके जिज्ञासा को तृप्त करते हैं!
            
आज के सत्संग परिचर्चा में पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने जिज्ञासा रखी  की जहां पर भी संत समाज एकत्र होता है उसे तीर्थ की श्रेणी क्यों प्रदान है, इस प्रसंग को स्पष्ट करते हुए बाबा जी ने बताया कि जहां पर संत समाज जुटता है उसे तीर्थ स्थान माना गया है यह इसलिए नहीं कि वह कथा करते हैं पुराण  गाते हैं,  भजन कीर्तन  करते हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है, यह तो उनका प्रभाव है उनकी सोच का और उनके प्रभुत्व का प्रभाव है, क्योंकि संत समाज आने वाली पीढ़ी,  संपूर्ण सृष्टि के कल्याण हेतु, सब के उद्भव,तथा सभी  के आनंद के लिए, कल्याण के लिए सोचते है और  वे जो सब का ध्यान रखें सब के कल्याण के विषय में ही सोचें वहीं तो " शिव" होता है और जहां शिव होते हैं वही पर तीर्थ  होता है भारत मे  जहां भी तीर्थ है वहां पर शिव है जहां पर ब्रह्म ज्ञान ब्रह्म विचार की सरस्वती प्रवाहित हो भक्ति की गंगा हो वही तो संगम है जबकि तीर्थ के लिए आपको जाना पड़ेगा परंतु यह तो चलता फिरता तीर्थ है  संत समागम हों  तो आपको तीर्थ कहीं भी प्राप्त हो जाता है सत्संग त्रिवेणी संगम की ही तरह  पवित्र हैं  संगम के समान ही पावन है अतः संत जहां है वहीं पर तीर्थ  है, आप ने इस संत समागम सत्संग में अवश्य ही डुबकी लगाई है और कलयुग रूपी पापों से मुक्ति प्राप्त की है!
               
पाठक परदेसी जी ने "श्रद्धा संबल रहित तन नहीं संतन कर .साथ... दोहे पर प्रकाश डालने की विनती संत श्री से की
इस दोहे का विस्तार करते हुए बाबा जी ने बताया कि अक्सर ऐसा ही होता है कि लोग कथा में जाते हैं परंतु उसका ज्ञान उनमें नहीं आता, भगवान को तो मानते हैं परंतु भगवान कि नहीं मानते, संतो को तो मानते हैं पर संतों की नहीं मानते,  गुरु को तो मानते हैं परंतु गुरु कि नहीं मानते,  ऐसा क्यों, क्योंकि हृदय में रघुनाथ जी का वास नही  होता  मन  में प्रभु श्रीराम होना आवश्यक है  यदि राम जी हृदय में नहीं है तो आने वाले समय के कुतर्क में हम फंसते चले जाएंगे, और ज्ञान से प्रकाशित कैसे हो पाएंगे, आपको प्रथम श्रद्धा का संबल होना होगा बिना श्रद्धा के आप कुछ सुनेंगे तो उसका आपको  कुछ लाभ नहीं मिलने वाला दूसरी बात संतों का साथ हो, कथा ऐसे व्यक्ति से सुनिए जो निश्चल और निष्कपट हो जिसका हृदय सज्जन व्यक्ति का हो   वह लोभी ना हो ज्ञानी हो, यदि कथा भक्ता लोभी है अज्ञानी, कथा श्रवण का कोई लाभ नहीं मिलेगा, लोभ वश  आज कई लोग. झोला पकड़कर कथा बेच रहे हैं यदि आपके हृदय में राम जी का वास हो मन में श्रद्धा और सन्त  से कथा प्राप्त हो तो देखिए कथा श्रवन   कैसे मंगलकारी होता है!
          
तन्नू साहू जी पुणे ने भगवान पंचमुखी हनुमान जी के रूप में कौन कौन से अवतार समाहित है जानने की जिज्ञासा संत श्री के समक्ष रखी, हनुमान जी  का अवतार सेवा के लिए ही हुआ है वह पंचमुखी हनुमान जी का रूप भी सभी सेवा रूप  समाए हुए हैं मां भगवती का वाहन सिँह  हैं हनुमानजी का एक दक्षिण मुख से सिंह का हैं, पश्चिम में गरुड़ का मुख हैं  जिसमें भगवान विष्णु की सवारी है,  धरती माता जब संकट में थी तब भगवान विष्णु ने सुकर का रूप धारण किया था तो उत्तर मे   सुकर मुख से धरती के सेवक के रूप में,  ऊपर की और घोड़े का मुख है, जो कि संपूर्ण दैहिक दैविक भौतिक ताप को दूर करने रोग शोक  को दूर करने का प्रतीक है और पूर्व रूप में कपि हनुमान जी का मुख  जो सेवक के प्रत्येक भाव का उल्लेख  संकेत करते हैं हमें भी यही भाव अपने हृदय में लाना चाहिए!
             
पाठक परदेसी जी ने " सकल विघ्न व्याप्त नही तेही..... दोहे को स्पष्ट करने की विनती संतश्री के समक्ष की, इस दोहे को विस्तार करते हुए संत  जी  ने बताया कि राम प्रभु की कृपा जिस पर हो वह तर जाता है परंतु भगवान को निहारने  वाला उनका भजन करने वाले  को कोई कष्ट नहीं होता ऐसा नहीं है, सुख और दुख हानि व लाभ सबके जीवन में आएंगे दुर्जन के भी और सज्जन के भी परंतु दोनों के जीवन में आने-जाने का क्रम बदल जाता है राम प्रभु की कृपा पात्र लोग  के कष्ट भी उनके जीवन में घुल मिल जाते हैं, उसे भी वे  प्रभु की कृपा मान,  उस समय को बिना विचलित हुए धैर्य पूर्वक प्रभु का नाम लेकर  व्यतीत कर देते हैं उन्हें पता है यहां समय आया है तो चले भी जाता है लेकिन जब  यह ज्ञान नहीं होता वह पूरे समय रोता हुआ और विचलित  होकर दुखी दिखता है उसके लिए समय व्यतीत कर पाना दुखद हो जाता है इस प्रकार जो भक्तजन  होते हैं वे  दुख को भी प्रभु की कृपा मानकर भगवान का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर आगे बढ़ जाते हैं बिना चिंता किए क्योंकि उसे ज्ञात है कि वह तो प्रभु शरण में है जब शरण भगवान की है तो क्या सोचना और वह दुखों को पार कर लेता है!
      
राजेश यादव जी ने प्रश्न किया कि कहा जाता है कि पितृपक्ष में घर में देवस्थान में दीपक नहीं जलाना चाहिए
संत श्री ने इस अंधविश्वास का पूर्णता खंडन करते हुए कहा कि कभी भी भगवान के पूजा पाठ को खंडित नही करना चाहिए, खुद के घर में भी कभी सूतक हो तो बाहर से किसी भी व्यक्ति को बुलाकर भगवान के पास दिया अवश्य लगाना चाहिए, यही हमारा धर्म और विश्वास कहता है!!!
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